आशाओं का "खुला आसमाँ "
आशाओं का "खुला आसमाँ "
आशाओं का "खुला आसमाँ " |
बुलाता है मुझे वो घना बादल
बहती शीतल हवाओं का आँचल
बुलाती है पर्वतों की बर्फीली चोटियाँ
बुलाता है धूप में तपता मरुस्थल
आज तो उड़ने को कह दिया जमीं ने भी मुझसे...
"बेटी!
कब तक इसे सहूँ मैं
अब तो तू ही कुछ कर
भर कर एक उड़ान
तब ही वापस उतर "
मैने कहा...
"हे माँ!
मैने कब चाहा तुझ पर भार बनूँ मैं
तुझ पर होने वाला अत्याचार बनूँ मैं
तेरे ही समाज की बंदिशों के इस
गुरुत्व बल ने मुझे जकड़ रखा है
फिर कैले उड़ानों का ध्यान करूँ मैं? "
माँ ने कहा...
"मत कह बल इसे,एक अभिशाप है ये
मुझसे भी तो करवाता, पाप ही है ये
इस भूचाल में बहुत विवश हूँ मैं
मेरी बेटी के लिए शमशान है ये
बेटी!
अब तुझे ही कुछ करना होगा
तोड़नी होंगी बंदिशों की जंजीरें
इस उड़ान में दम भरना होगा "
बस इतना ही कहा था माँ ने जब उनकी
आँखों से एक पवित्र जलधारा बह निकली...
उस जलधारा में मैने
अपनाजीवन झोंक दिया
संपूर्ण इच्छा शक्ति झोंक दी
डूबे सभी डर उसमें
शंकाएँ सभी बह गई
और इन सबके बीच
मैने तैरना सीख ही लिया
अब बारी है उड़ान भरने की
कोई साधारण चुनौती नहीं यह
हौंसले की उड़ान है...
साँसे उखड़ी तो क्या? सलामत हैं प्राण अभी
पंख घायल तो क्या?हृदय में है स्पंदन अभी
अनुभव नहीं तो क्या? खुलेंगी नई राहें अभी
अब तैयार हूँ मैं
भरने को एक नई उड़ान
स्वप्निल घोंसलों से उठकर
नई राहों में उड़कर
पर्वतों से टकराकर
बादलों में नहाकर
जमीं से लेकर वहाँ तक
जहाँ न बंदिशें, न सीमाएँ
जहाँ है मेरी अभिलाषाओं का
आशाओं का "खुला आसमाँ"...
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